चोटी की पकड़–10
विज्ञान की उस समय भी हिंदुस्तानियों के लिए काफी तरक्की हो चुकी थी, पर मोटरों की इतनी भरमार न थी।
हवाई जहाज थे ही नहीं। तब कलकत्ते में बग्घियाँ चलती थीं।
बाद को मोटरें हो जाने पर भी रईसों का विश्वास था, बग्घी रईसों के अधिक अनुकूल है, इससे आबरू रहती है।
राजा साहब ने कई शानदार बग्घियाँ रखी थीं, कीमती घोड़ों से अस्तबल भरा था।
शराब और वेश्या का खर्च उन दिनों चरम सीमा पर था।
माँस, मछली, सब्जी और फलों के गर्म और क्रीम और बर्फदार ठंढे इतने प्रकार के भोजन बनते थे
कि खाने में अधिकांश का प्रदर्शन मात्र होता था; वे नौकरों के हिस्से में आकर भी बच जाते थे।
फूल और सुगंधियों का खर्च अब शतांश भी नहीं रहा।
पुरस्कार इतने दिए जाते थे कि एक-एक जगह के दान से नर्तकियों और गवैयों का एक-एक साल का खर्च चल जाता था।
आमंत्रित सभी राजे-रईस व्यवहार में हजारों के वारे-न्यारे कर देते थे।
अगर स्वार्थ को गहरा धक्का न लगा होता तो ये जमींदार स्वदेशी आंदोलन में कदापि शरीक न हुए होते।
इन्होंने साथ भी पीठ बचाकर दिया था। सामने आग में झुक जाने के लिए युवक-समाज था।
प्रेरणा देने वाले थे राजनैतिक वकील और बैरिस्टर। आज की दृष्टि से वह भावुकता का ही उद्गार था।
सन् सत्तावन के गदर से महात्मा गाँधी के आखिरी राजनीतिक आंदोलन तक, स्वत्व के स्वार्थ में, धार्मिक भावना ने ही जनता का रुख फेरा है।
इसको आधुनिक आलोचक उत्कृष्ट राजनीतिक महत्त्व न देगा। स्वदेशी आंदोलन स्थायी स्वत्व के आधार पर चला था।
उससे बिना घरबार के, जमींदारों के आश्रय मे रहनेवाले, दलित, अधिकांश किसानों को फ़ायदा न था।
उनमें हिंदू भी काफी थे, पर मुसलमानों की संख्या बड़ी थी,
जो मुसलमानों के शासनकाल में, देशों के सुधार के लोभ से या ज़मींदार हिंदुओं से बदला चुकाने के अभिप्राय से मुसलमान हो गए थे।
बंगाल के अब तक के निर्मित साहित्य में इनका कोई स्थान न था,
उलटे मुसलमानी प्रभुत्व से बदला चुकाने की नीयत से लिखे गए बंकिम के साहित्य में इनकी मुखालिफ़त ही हुई थी।